वन नेशन, वन इलेक्शन क्या भारत में संभव है?

भारत एक विशाल लोकतांत्रिक देश है, जहां हर साल किसी न किसी राज्य या लोकसभा के चुनाव होते रहते हैं। लेकिन हाल ही में, ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ यानी पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने का मुद्दा चर्चा में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विचार को कई बार समर्थन दिया है, और अब इसे वास्तविकता में बदलने के लिए गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं।

इस ब्लॉग में, हम इस विषय को विस्तार से समझेंगे, इसके ऐतिहासिक पहलू, फायदे, चुनौतियां, राजनीतिक प्रतिक्रियाएं और इसका आम जनता पर क्या असर होगा?

साभार: दैनिक भास्कर

वन नेशन, वन इलेक्शन का इतिहास

1952 में, जब भारत में पहली बार आम चुनाव हुए, तब लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए गए थे। यह सिलसिला 1967 तक चला।

लेकिन 1968 और 1969 में कुछ राज्यों की सरकारें भंग हो गईं और उनके चुनाव अलग-अलग समय पर कराए गए। इसके बाद, 1970 में लोकसभा भी भंग हो गई, और 1971 में मध्यावधि चुनाव हुए।

तब से, भारत में अलग-अलग समय पर चुनाव होने की परंपरा शुरू हो गई।

वन नेशन, वन इलेक्शन का विचार क्यों?

साभार: प्रभात खबर

हर साल होने वाले चुनावों के कारण देश में:

खर्च का बोझ बढ़ता है: चुनावों में सरकार, राजनीतिक दलों और प्रशासन का भारी खर्च होता है।

आचार संहिता लागू होती है: बार-बार आचार संहिता लागू होने से विकास कार्य प्रभावित होते हैं।

 राजनीतिक अस्थिरता: लगातार चुनावी माहौल के कारण सरकारों पर विकास कार्यों से अधिक चुनावी वादों पर ध्यान देने का दबाव रहता है।

‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का उद्देश्य इन समस्याओं का समाधान करना है।

वन नेशन, वन इलेक्शन के फायदे

  1. खर्च में कमी: लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने से हजारों करोड़ रुपये की बचत हो सकती है।
  1. समय की बचत: बार-बार चुनावों से सरकार और प्रशासन का ध्यान बंटता है। एक साथ चुनाव से यह समस्या हल हो सकती है।
  1. सतत विकास: बार-बार आचार संहिता लागू होने से परियोजनाओं पर रोक लग जाती है। एक साथ चुनाव से विकास कार्य निर्बाध रूप से चल सकते हैं।
  1. राजनीतिक स्थिरता: हर चुनाव में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती है। एक साथ चुनाव होने से सरकारें अपने कार्यकाल पर ध्यान केंद्रित कर पाएंगी।
  1. वोटर टर्नआउट में सुधार: एक ही समय पर चुनाव होने से अधिक लोग मतदान करने के लिए प्रेरित होंगे।

वन नेशन, वन इलेक्शन की चुनौतियां

  1. संवैधानिक बदलाव की आवश्यकता: इस विचार को लागू करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 83 (लोकसभा का कार्यकाल), 85, 172 (विधानसभा का कार्यकाल), 174, और 356 में बदलाव करना होगा।
  1. राजनीतिक सहमति: भारत के सभी राजनीतिक दलों को इस मुद्दे पर सहमत करना आसान नहीं है। कई दल इसे क्षेत्रीय स्वायत्तता पर हमला मानते हैं।
  1. तकनीकी और लॉजिस्टिक समस्या:
  • चुनाव कराने के लिए एक साथ करोड़ों वोटिंग मशीन और वीवीपैट की आवश्यकता होगी।
  • मतदान केंद्रों पर सुरक्षा व्यवस्था के लिए भारी मात्रा में सुरक्षाबलों की जरूरत पड़ेगी।
  1. कार्यकाल का असमान होना: अगर किसी राज्य की सरकार गिरती है, तो क्या उसके चुनाव बाकी के चुनावों तक टाले जाएंगे? इससे राज्य में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ सकती है।
  1. मतदाताओं की अलग-अलग प्राथमिकताएं: लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मतदाताओं की प्राथमिकताएं अलग-अलग होती हैं। दोनों चुनाव एक साथ होने से यह भिन्नता खत्म हो सकती है।

राजनीतिक दलों और विशेषज्ञों की राय

‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ को लेकर भारत के राजनीतिक दलों और विशेषज्ञों में मतभेद हैं।

 बीजेपी का समर्थन: भाजपा का कहना है कि यह विचार देश को आर्थिक और राजनीतिक रूप से मजबूत बनाएगा।

 कांग्रेस और विपक्ष की आपत्ति: कांग्रेस और कई क्षेत्रीय दलों का मानना है कि यह संघीय ढांचे के खिलाफ है और राज्यों की स्वतंत्रता को कमजोर करता है।

 विशेषज्ञों की राय: संवैधानिक विशेषज्ञों का कहना है कि यह विचार अच्छा है, लेकिन इसे लागू करना एक लंबी और जटिल प्रक्रिया होगी।

जनता पर प्रभाव

‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ आम नागरिकों के जीवन को कई तरीकों से प्रभावित कर सकता है:

  • करदाताओं पर बोझ कम होगा।
  • सरकारें ज्यादा स्थिर होंगी।
  • चुनावी प्रक्रिया से जुड़ी परेशानियां घटेंगी।

लेकिन अगर यह प्रणाली सही तरीके से लागू नहीं की गई, तो इसका असर जनता की समस्याओं को और जटिल बना सकता है।

क्या भारत इस बदलाव के लिए तैयार है?

भारत जैसे विविधता भरे देश में यह विचार जितना सरल लगता है, उतना है नहीं। इसके लिए बड़े पैमाने पर तैयारी और सहमति की आवश्यकता होगी।

  • चुनाव आयोग को पर्याप्त समय और संसाधन दिए जाने चाहिए।
  • राजनीतिक दलों को एकजुट होकर जनता के हित में काम करना होगा।
  • जनता को भी अपनी भूमिका समझनी होगी और बदलाव के लिए तैयार रहना होगा।

‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का विचार भारत के लोकतंत्र के लिए एक क्रांतिकारी पहल हो सकता है। लेकिन इसे लागू करने से पहले हर पहलू पर ध्यान देने की जरूरत है। यह केवल सरकार का नहीं, बल्कि हर नागरिक का दायित्व है कि वे इस विषय पर चर्चा करें, इसे समझें, और अपने विचार रखें।

यह बदलाव केवल एक नीति नहीं, बल्कि देश के भविष्य की दिशा तय करने का साधन बन सकता है। क्या भारत इसका स्वागत करेगा या यह एक अनसुलझा मुद्दा बनकर रह जाएगा? यह समय ही बताएगा।